प्रणय कुछ पल ऐसे होते हैं जिनका आना तो निश्चित होता है किंतु मन करता है कि वह कभी न आये। लेकिन मौत को कौन टाल सका है। लंबी बीमारी के बाद अरुण जेटली ने इस नश्वर संसार को अलविदा कह दिया है। महज 66 वर्ष की अवस्था में वह भारतीय राजनीति में जो निर्वात छोड़ गये हैं, उसे पूरित कर पाना लगभग असंभव सा है।
अरूण जेटली प्रखर वक्ता, लोकप्रिय राजनेता, प्रसिद्ध अधिवक्ता, कुशल रणनीतिकार समेत अनेक खूबियों को समेटे बहुआयामी व्यक्तित्व के मालिक थे। उनका जीवन विलक्षण उपलब्धियों से भरा रहा। राज्यसभा में बतौर नेता प्रतिपक्ष, जेटली के तार्किक और अचूक तर्क, सत्ता पक्ष के लिए अबूझ चुनौती की तरह रहे। बतौर नेता सदन रहते हुए भी, वो उसी तार्किकता के साथ मोदी सरकार को घेरने के विपक्ष के प्रयासों को अशक्त करते रहे।
छात्र राजनीति से प्रारम्भ हुई जेटली की राजनीतिक यात्रा, देश के अग्रणी नेता के मुकाम तक पहुंचने पर समाप्त हुई। जेटली का राजनीतिक सफर एक योद्धा जैसा रहा, जिसमें उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। दिल्ली विश्व विद्यालय में छात्र संघ के अध्यक्ष के तौर पर उन्होने अपनी सियासी पारी आगाज किया था।
उसके बाद तो उन्होने रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का दायित्व संभाला तो सूचना और प्रसारण, कानून, न्याय और कंपनी मामले, विनिवेश, वाणिज्य और उद्योग आदि मंत्रालयों में भी अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया। बहैसियत वित्त मंत्री उनके द्वारा लिये गये दो निर्णयों, नोटबंदी और जीएसटी को भला कौन भूल सकता है। ऐसे अनेक अवसर आये जब उन्होने धारा के विपरीत जाकर सख्त फैसले लेने में कोई संकोच नहीं किया। दिल्ली राज्य के तो सभी फैसलों में जेटली की अहम भूमिका रहती थी।
वर्ष 2002 में दिल्ली भाजपा का प्रभारी बनने के बाद से पिछले 17 वर्षों में प्रदेश भाजपा में चाहे वह अध्यक्ष की नियुक्ति हो, मुख्यमंत्री का चेहरा निर्धारित करना हो, निगम के महापौर व स्थायी समिति का अध्यक्ष या लोकसभा, विधानसभा एवं निगमों के उम्मीदवार हों, सभी फैसलों में अरुण जेटली की महत्ती भूमिका रही थी।
दिल्ली उनके दिल में बसती थी। वर्ष 1990 तक दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में भी वह समय देते और छात्र नेताओं का मार्गदर्शन करते रहे।
चुनाव प्रचार एवं रणनीति बनाने में वे माहिर माने जाते थे। 2019 की महाविजय के अनेक शिल्पकारों में एक अरुण जेटली भी थे। यह जेटली का ही कमाल था कि चुनाव भाजपा और विपक्ष के बीच न होकर मोदी बनाम विपक्ष हो गया।
मोदी और शाह जब चुनाव प्रचार में व्यस्त थे तब जेटली दिल्ली में बैठकर व्यूह रचना में लगे थे। उनके मार्गदर्शन में ही पार्टी ने कमजोर सीटें ढूंढ कर इन्हें जीतने का प्लान बनाया था।
उन्होंने दावा किया था कि लोकसभा चुनाव 2019 में पूर्वोत्तर, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के परिणाम सबसे चौंकाने वाले होंगे और हुआ भी ऐसा ही।
अटल, सुषमा और प्रमोद महाजन के बाद अरुण जेटली ही भाजपा के ऐसे वक्ता थे जिन्हें सुनने के लिये विपक्ष के राजनेता भी सदन में उपस्थित रहते थे। विषय को तथ्यात्मक व प्रभावी शब्दों के साथ प्रस्तुत करने की कला उन्हें सबसे अलग खड़ा करती थी। सच कहा जाए तो पिछले दो दशक से जेटली राज्य सभा की बहस की जान हो गए थे।
संपर्क, संवाद और समन्वय की भाव धारा पर गति करती उनकी राजनीतिक चेतना, सदैव ही पार्टी के लिये संकटमोचक का कार्य करती रही। कहा जाता है कि गुजरात दंगों के बाद नरेन्द्र मोदी के त्यागपत्र के लिए अटल जी के अड़ जाने के बाद आडवाणी को समझाने वालों में जेटली भी शामिल थे। वे ही गांधीनगर जाकर मोदी को गोवा कार्यकारिणी बैठक में लाए थे।
संपर्क, संवाद और समन्वय में परम दक्ष होने के बावजूद जेटली का स्वभाव चुनावी राजनीति से मेल नहीं खाता था। शायद इसीलिये वह अपने लंबे व सफल राजनीतिक जीवन में सिर्फ एक बार 2014 में ही लोकसभा का चुनाव लड़े थे। बदकिस्मती से उस चुनाव में भी उन्हे सफलता नहीं मिल पायी थी।
तथ्य और तर्क की कसौटी पर हर बात को आकंने के गुण ने उन्हें भारत के सफलतम अधिवक्ताओं में शुमार करा दिया था। 80 के दशक में ही जेटली ने सुप्रीम कोर्ट और देश के कई हाई कोर्ट में महत्वपूर्ण मुकदमों की पैरवी की थी। बोफोर्स घोटाला जिसमें पूर्व पीएम राजीव गांधी का भी नाम था, 1989 में उस केस से संबंधित पेपरवर्क किया था। पेप्सीको बनाम कोका कोला केस में जेटली ने पेप्सी की तरफ से केस लड़ा था।
बताया जाता है कि अरुण जेटली ने ही सोहराबुद्दीन एनकाउंटर में अमित शाह के केस और 2002 गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी की तरफ से केस लड़ रहे वकीलों का मार्गदर्शन किया था।