कुछ व्यक्तित्व समय के क्षणिक प्रवाह से परे जाकर युगों तक स्मृति बन जाते हैं। उनका जीवन केवल सांसों का अनुक्रम नहीं, बल्कि शिक्षा, सेवा और साधना का समन्वय होता है। प्रो. उदय प्रताप सिंह ऐसे ही तेजस्वी शिक्षाविद थे। शिक्षकीय आकाश के अजातशत्रु, जिनका जीवन विद्या का दीप, संगठन का स्तंभ और संस्कार का शाश्वत स्रोत था।
1 सितम्बर 1933 को गाजीपुर की भूमि पर जन्मे प्रो. सिंह ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की और शीघ्र ही गोरक्षपीठ की शैक्षिक धारा से जुड़कर अपनी जीवन-यात्रा को राष्ट्रधर्म की धारा में विलीन कर दिया। 1955 में युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज ने उन्हें महाराणा प्रताप महाविद्यालय में गणित विषय का प्रवक्ता नियुक्त किया। वर्ष 1958 में जब श्रीमहंत जी ने यही महाविद्यालय गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु भूमि, भवन और मानव-शक्ति समेत दानस्वरूप समर्पित कर दिया, तब प्रो. सिंह उसकी प्रथम पीढ़ी के प्राध्यापकों में सम्मिलित हुए। वे केवल अध्यापक नहीं रहे, बल्कि गोरखपुर विश्वविद्यालय की जड़ों में रचे-बसे आधार-स्तंभ बने।
उनका जीवन इस दृष्टि से भी अनुपम रहा कि उन्हें गोरक्षपीठ के तीन पीठाधीश्वरों युगपुरुष महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज, राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज और वर्तमान पीठाधीश्वर व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी महाराज, तीनों का सान्निध्य प्राप्त हुआ। यह संयोग दुर्लभ ही नहीं, बल्कि अद्वितीय भी है। उनके कर्म, कर्तव्य और योगदान ने गोरक्षपीठ की शैक्षिक दृष्टि को निरंतर आगे बढ़ाया और शिक्षा को सेवा और संगठन को साधना का स्वरूप दिया।
उनका अध्यापन केवल गणितीय सूत्रों तक सीमित नहीं था। उनके कक्ष में समीकरण हल करने के साथ-साथ जीवन के प्रश्नों का उत्तर भी मिलता था। वे विद्यार्थियों को संख्याओं की कठिन पहेलियों में से धैर्य, तर्क और आत्मविश्वास की शक्ति खोजने की प्रेरणा देते थे। उनके लिए शिक्षा का अर्थ विद्या से विवेक और विवेक से सेवा था।
गणित उनका विषय था, पर संगठन उनकी साधना। वे गणना में जितने दक्ष थे, संगठन-निर्माण में उतने ही कुशल। उन्होंने केवल कक्षा नहीं पढ़ाई, बल्कि पीढ़ियों को गढ़ा। उनकी निगाह में शिक्षा ज्ञान का प्रसार भर नहीं, बल्कि समाज-निर्माण का आधार थी। यही कारण रहा कि गोरखपुर विश्वविद्यालय से लेकर पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर के कुलपति तक उनकी यात्रा न केवल पदों की यात्रा थी, बल्कि उत्तर प्रदेश की शैक्षिक चेतना का उत्कर्ष थी।
वर्ष 2018 में जब उन्हें महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद का अध्यक्ष बनाया गया, तब उन्होंने न केवल परिषद को नई ऊर्जा दी बल्कि महायोगी गोरखनाथ विश्वविद्यालय की स्थापना के समय प्रति कुलाधिपति के रूप में उसकी नींव भी सुदृढ़ की। उनका योगदान शिक्षा के भवन में ईंट भरने का नहीं, बल्कि नींव गढ़ने का था।
प्रो. सिंह केवल शिक्षक या प्रशासक नहीं थे, वे एक आदर्श संघचालक भी थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में उन्होंने प्रांत संघचालक का दायित्व निभाया और विद्या भारती के विविध उत्तरदायित्वों का निर्वहन किया। उनके व्यक्तित्व में संघ का अनुशासन, शिक्षा का सौम्यत्व और संगठन का सौष्ठव तीनों का अद्भुत समन्वय था।
उनकी विद्वत्ता ने विश्वविद्यालयों को दिशा दी, उनकी विनम्रता ने सहकर्मियों को साधा और उनकी कर्मठता ने संस्थानों को नया जीवन दिया। वे सचमुच शिक्षा जगत के अजातशत्रु थे, जिनसे कभी किसी ने शत्रुता नहीं की, बल्कि उनके प्रति सभी का हृदय स्वतः झुक गया।
उनका जीवन केवल शिक्षा परिषद तक सीमित नहीं रहा, उन्होंने गोरक्षपीठ के मिशन को साधना की दृढ़ता और संगठन की सजगता से आगे बढ़ाया। उनका व्यक्तित्व एक साथ विद्वान आचार्य, दूरदर्शी प्रशासक और निष्ठावान साधक का अद्भुत संगम था। वे अपने पीछे एक गौरवमयी शैक्षिक परंपरा छोड़ गए हैं, जिसे उनके पुत्र प्रो. वी.के. सिंह (पूर्व कुलपति, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय) और प्रो. मदन सिंह (आचार्य, यूपी कॉलेज) आज भी आगे बढ़ा रहे हैं।
महायोगी गोरखनाथ विश्वविद्यालय, गोरखपुर के प्रथम कुलसचिव डॉ. प्रदीप कुमार राव बताते हैं कि “प्रो. उदय प्रताप सिंह जी एक दीपक की तरह थे, जो अंधकार को चीर कर दूसरों को दिशा देता है। वे नदी की तरह थे, जो अपने प्रवाह में शुद्धता, पवित्रता और जीवन की ऊर्जा समेटे रहती है। वे वटवृक्ष की भांति थे। जिसकी छाया में पीढ़ियां पनपीं और जिसकी जड़ों से संस्कृति और शिक्षा की नई कोंपलें फूटीं।”
27 सितम्बर 2025 की भोर ने जब प्रो. उदय प्रताप सिंह को चिरनिद्रा में सुला दिया, तब शिक्षा-जगत, गोरक्षपीठ और संगठन-जीवन एक साथ शोकाकुल हो उठे। यह क्षति केवल एक विद्वान, एक प्रशासक या एक संगठनकर्ता की नहीं, बल्कि उस दीपस्तंभ की है जो पीढ़ियों को मार्ग दिखाता रहा। वे चले गए, पर उनकी स्मृति, उनके संस्कार और उनका संघर्ष हमारे बीच अमर रहेंगे।
आज गोरखपुर विश्वविद्यालय की दीवारें, महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद की कक्षाएं और महायोगी गोरखनाथ विश्वविद्यालय की धरती सब एक स्वर में कह रही हैं कि उन्होंने हमें केवल शिक्षा नहीं दी, उन्होंने हमें संस्कार दिए। उन्होंने हमें केवल ज्ञान नहीं दिया, उन्होंने हमें दृष्टि दी।
वे शरीर से भले ही विलीन हो गए हों, पर उनके कर्म की आभा, उनके व्यक्तित्व की गरिमा और उनकी साधना की गूंज युगों-युगों तक जीवित रहेगी। प्रो. उदय प्रताप सिंह जी, आप अब स्मृति नहीं, प्रेरणा हैं।
आज जब हम उन्हें विदा कर रहे हैं, तो यह विश्वास भी साथ है कि उनका दिया हुआ प्रकाश कभी नहीं बुझेगा। वे सचमुच ‘एक जीवन में अनेक प्रेरणाओं’ के प्रतीक बनकर हमारे हृदय में अमर रहेंगे।