श्रीराम मंदिर ‘राष्ट्र मंदिर’ शिलान्यास के 03 वर्ष…

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प्रणय विक्रम सिंह

@SamacharBhaarti


प्रणय विक्रम सिंह

आज का दिन भारत की आस्था, अस्मिता, स्वाभिमान और गौरव की पुनर्स्थापना का दिवस है। काल के कपाल पर मानव सभ्यता के सांस्कृतिक पुनर्जागरण के कालजयी प्रतीक के रूप में अंकित आज के दिन ही 03 वर्ष पूर्व श्रीरामजन्मस्थान पर भव्य-दिव्य राम मंदिर ‘राष्ट्र मंदिर’ का शिलान्यास हुआ था।

यह सामान्य दिवस नहीं है, इसके लिए तो पांच शताब्दियों का अविराम संघर्ष, ‘अहिल्या’ सदृश प्रतीक्षा एवं घायल जटायु के समान आर्तनाद करती सांस्कृतिक चेतना की आहत हुंकार युगों से बांट जोह रही थी। पुत्र रक्त में नहाई हुई धर्मनगरी अयोध्या, आज सकल आस्था के केंद्र प्रभु श्रीरामलला के भव्य-दिव्य मंदिर निर्माण की गतिशीलता से स्वयं के संघर्ष को सुफलित होती देख रही है।

आज आस्था के प्रांजल भाव से प्रेरित आत्मोत्सर्ग की अपरिमित भक्त श्रृंखलाओं की अकथनीय “त्याग ऋचाएं” राम नगरी अयोध्या के उल्लासित वातावरण में स्पंदन कर रही हैं। स्मृतियों के पक्षी की उड़ान को तीन वर्ष पीछे ले जाने पर 05 अगस्त 2020 को अभिजीत मुहूर्त में भारतीय गणराज्य के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा श्रीरामजन्मस्थान पर राष्ट्र मंदिर ‘राम मंदिर’ के हुए शिलान्यास की पावन अनुभूतियां मन में सजीव हो उठती हैं। शरीर का रोम-रोम राममय हो जाता है। मन रामभक्तों के पावन अवदान के प्रति कृतज्ञ हो उठता है।

ऐसा होना स्वाभाविक भी है। यही तो था वह अद्भुत, अलौकिक, अनिर्वचनीय क्षण, जिसकी चिरंतन प्रतीक्षा में लाखों हुतात्माओं ने ‘काल संग क्रीड़ा’ करने में भी संकोच नहीं किया था।


सन 1528 के म्लेक्ष बाबर से लेकर 1990 तक उसके रक्तपिपासु उत्तराधिकारियों द्वारा अयोध्या की पावन धरा पर ‘राम भक्तों’ का बहाया गया लहू आज विजय का रक्त चंदन बन प्रत्येक सनातनी के भाल पर दमकते हुए उद्घोष कर रहा है कि त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयम्, शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये।’

श्री रामजन्मभूमि पर राम मंदिर निर्माण की अतृप्त अभीप्सा के साथ गोलोकवासी हुईं सहस्रों देव आत्माएं आज मुदित मन और सजल नेत्रों के साथ रघुकुल नंदन, मर्यादा पुरुषोत्तम, प्रजा पालक, भक्त वत्सल, जन हितकारी, दुःखभंजन, कृपानिधान प्रभु श्री राम को अपने जन्मस्थान मंदिर में विराजते हुए देख रही हैं। उन्हीं आंखों ने कभी उस जनक्रांति के स्व-स्फूर्त भावावेगों के ज्वार को भी देखा था जिसने तत्कालीन राजसत्ता को जननायक प्रभु श्री राम के कण-कण के साथ-साथ जन-जन में विद्यमान होने का अहसास कराया था।

ब्रितानी शासन में पावन श्री गोरक्षपीठ के महंत दिग्विजयनाथ के समर्पित नेतृत्व में प्रारंभ हुआ श्रीराम जन्मस्थान मुक्ति आंदोलन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व उसके आनुषांगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद की अगुआई में द्रुत गति से अखिल भारतीय जनमानस की चेतना जागरण का कारक बन गया।

विदित हो कि दिसंबर 1949 में अयोध्या में श्रीरामलला के प्रकटीकरण के समय गोरक्षपीठाधीश्वर युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज अयोध्या जी में ही मौजूद थे, वहीं 1986 में जब मन्दिर का ताला खुला तो ‘बड़े महाराज’ यानी राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ रामनगरी में उपस्थित थे। महंत योगी आदित्यनाथ के संघर्ष के तो हम सभी साक्षी हैं।

गोरक्षपीठ की तीन पीढ़ियों ने राम जन्मस्थान मुक्ति संघर्ष में स्वयं को समर्पित कर दिया तो महंत परमहंस रामचंद्रदास, अशोक सिंघल, महंत नृत्यगोपाल दास, चंपत राय, साध्वी उमा भारती, साध्वी ऋतम्भरा समेत हजारों साधु-संतों और करोड़ों आस्थावानों ने अगणित समस्या सिंधु को पार करते हुए राष्ट्र गौरव यज्ञ में अपनी-अपनी भाव आहूति अर्पित कर आंदोलन को सिद्ध कर दिया।

स्मरण रहे कि श्रीराम जन्मस्थान मुक्ति संघर्ष किसी पंथ, मजहब या समुदाय का संघर्ष नहीं था बल्कि यह तो उस प्रत्येक निर्बल स्वाभिमानी व्यक्ति, समुदाय और समष्टि का संघर्ष था, जो अपनी अस्मिता को किसी बर्बर, क्रूर, दम्भी राजसत्ता से मुक्त कराने का स्वप्न देखती है। यह तो भाव को समभाव से स्वीकार करने की मनुहार थी, जो सम्पूर्ण राष्ट्र की समेकित भावना के रूप में प्रस्फुटित हुई। मुगलों, अंग्रेजों तत्पश्चात तुष्टिकरण के दावानल में भी अक्षत रही।


राम मंदिर की आधारशिला कल-युग में ‘राम युग’ के पदार्पण का शंखनाद है। वह ‘राम युग’, जो सत्य, शील और मर्यादा को जीता है। जो सद्भाव, सहकार, समन्वय, सहजीवन और सह-अस्तित्व की लोकतांत्रिक चेतना से अभिसंचित है। जहां सत्ता का कार्य लोकमंगल की सुचेष्टाओं को फलीभूत करना है। जहां व्यक्ति से अधिक विचार का महत्व है। जहां प्रजा के रक्षण और पोषण का दायित्व व्यक्ति नहीं, अपितु व्यवस्था करती है। व्यवस्था ऐसी जो चित्त, चरित्र चिंतन की अभियंता है। जहां स्त्री, धरा और प्रकृति पर की गयी चोट को धर्म पर प्रहार समझा जाता है। जिसको प्रकट करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि “सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।“

राम मंदिर, इस भावना का प्रतिनिधि प्रतीक है। इस सर्वकालिक प्रतीक को जीवंत करने का दायित्व तापस वेशधारी महंत योगी आदित्यनाथ ने आहरित कर लिया है जैसे राम मंदिर निर्माण का दायित्व उनके पितामह गुरू दिग्विजयनाथ ने धारण किया था। कार्य दुष्कर है किंतु राम भक्त कहता है कि “राम काजु कीन्हें बिनु, मोहि कहां विश्राम“ और रामराज्य की संकल्पना को जीवंत करना ही तो राम काज है। जिस तरह से उ.प्र की धरा से अपराधी और उपद्रवी विधि सम्मत परिणति को प्राप्त हो रहे हैं और ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्’ का भाव चरितार्थ हो रहा है, उससे सकेंत मिलने लगे हैं कि राम भक्त योगी अपने कार्य में रत हैं।


योगी के सद्प्रयासों से गांव की पगडण्डी पर रोजगार का भास्कर उदित हो रहा है। घर के दीपक से ही सायं के दीपक को जलवाने का संकल्प पूरित हो रहा है। यह तो युग परिवर्तन की झांकी मात्र है। ‘आस्था और अर्थव्यवस्था’ को संरक्षित कर ‘जीवन और जीविका’ की सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए अंत्योदय से समाजोदय के विकास पथ पर उत्तर प्रदेश को अग्रसर करते योगी आदित्यनाथ त्रेतायुगीन वैभव को पुनः जीवंत करने हेतु क्रियाशील हैं। अयोध्या में उसकी झांकी देखी जा सकती है।


आस्था, आधुनिकता और वैज्ञानिकता की संगम-धारा में स्नान करती इक्ष्वाकपुरी, थीम पार्क, रामायण सर्किट जैसी अनेकानेक योजनाएं सांस्कृतिक उन्नयन की यात्रा को नए स्वरूप में नई पीढ़ी से साक्षात्कार कराने को तैयार हैं तो विमानपत्तन समेत परिवहन पथों के बिछते जाल और राम की स्मृति से जुड़े हर घाट, कुण्ड और मंदिर के जीर्णोद्धार से अयोध्या प्रमुदित है। धार्मिक पर्यटन की संभावनाओं से विकसित होते आजीविका के अनेकानेक अवसरों से अयोध्यावासी हर्षित हैं। ‘प्रजा-सुखे सुखम् राज्ञः प्रजानाम् तु हिते हितम्, न आत्मप्रियम् हितम् राज्ञः प्रजानाम् तु प्रियम् हितम्’ का भाव फलीभूत हो रहा है।

लोक और तंत्र के संबंधों को पवित्र सरयू के अविरल प्रवाह की भांति सहज और स्वाभाविक करती “लोकरंजन से लोकमंगल” की यह यात्रा लोकतंत्र को जीवंत कर रही है। लोकतंत्र की जीवंतता ही रामराज की परिणति है। निर्माणाधीन श्रीराम मंदिर के भव्य-दिव्य होते स्वरूप के समानुपात में ‘रामराज’ का संकल्प सिद्ध हो रहा है, लोकतंत्र अधिक सहभागी और समृद्ध हो रहा है।

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