प्रणय विक्रम सिंह
09 नवंबर की तारीख भारतीय इतिहास में दर्ज हो गयी है। विगत पांच दशकों से भारत की राजनीति की धुरी बने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का पटाक्षेप हो गया। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने सदियों से अन्याय और अपमान का दाग लेकर जीने को अभिषप्त, सिसकती अय़ोध्या को ससम्मान उसका हक वापस कर दिया है। अब उसके राम की जन्मभूमि को आधुनिक कानून की वैधानिकता प्राप्त हो गई है।
देश की सबसे बड़ी अदालत के चीफ जस्टिस, रंजन गोगोई की अगुवाई में पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने सर्वसहमति से विवादित जमीन रामलला को सौंप दी है। मतलब विवादित जमीन प्रभु श्री राम की जन्मभूमि है। राम जो अपनी मर्यादा के कारण पुरुषोत्तम कहलाये। जिनकी स्मृतियों से अयोध्या का कोना-कोना आबाद है। जिनके नाम का उच्चारण, सामान्य जन जीवन में संबोधन बनता है। वह राम अब टेंट में नहीं, मंदिर में विराजेंगे।
दीगर है कि न्यायालय के निर्णय में तार्किकता और तथ्यातमकता के साथ-साथ समरसता का भाव भी समावेशित है। शायद तभी मुस्लिम पक्ष यानी सुन्नी वफ्फ बोर्ड के दावे के अधिकार को भी अवैधानिक मानने वाली कोर्ट ने उसे, अयोध्या में ही अलग स्थान पर 05 एकड़ जमीन देने का आदेश दिया है। यह निर्णय, समरसता का ही तो प्राकट्य है। यद्यपि खुद को मुस्लिमों का रहनुमा कहने वाले राजनेता हैदराबादी ओवैसी ने इसे खैरात बता कर कोर्ट के निर्णय और भावना दोनों का अपमान किया है।
सर्वोच्च अदालत ने अपने निर्णय में विवाद के लिये किसी भी प्रकार की कोई भी गुंजाइश नहीं छोड़ी है।
एक तरफ विवादित स्थल से मुस्लिम पक्ष को दूर किया, वहीं दूसरी तरफ निर्मोही अखाड़े के दावे को खारिज करके हिंदुओं के आपस में उलझने की संभावना को भी खत्म कर दिया। न्यायालय यहीं नही रुकी, उसने केंद्र सरकार पर ट्रस्ट के जरिये मंदिर निर्माण की जिम्मेदारी भी डाली है।
अब बढ़ते हैं फैसले के अन्य पहलुओं की ओर। दरअसल अयोध्या विवाद का निर्णय बहुआयामी है। जमीन किसके हिस्से जायेगी, तक ही इसे सीमित नहीं किया जा सकता है। यह निर्णय तो भारतीय संस्कृति के विरूद्ध सैकड़ों वर्ष पूर्व से लेकर स्वाधीन भारत में बुनी जा रही साजिशों को बेनकाब करता है।
इसलिये निर्णय के कुछ बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है। जैसे, साफ कहा गया है कि मीर बाकी ने मस्जिद बनाई थी। अदालत ने यह भी माना है कि मस्जिद खुली जमीन पर नहीं बनाई गई है, बल्कि किसी गैर-इस्लामी धार्मिक संरचना के ऊपर तामीर की गई थी। मस्जिद के नीचे विशाल रचना थी। जो कलाकृतियां मिली थीं, वह इस्लामिक नहीं थीं। विवादित ढांचे में पुरानी संरचना की चीजें इस्तेमाल की गईं।
न्यायालय ने कहा कि, सैकड़ों साल से यहां के निवासी इसे जन्मस्थल मानते रहे हैं। उनकी आस्था को हम किस आधार पर चुनौती देना चाहते हैं? धार्मिक मान्यताओं और आस्थाओं को चुनौती दी भी नहीं जाती। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को साफ-साफ कहा भी है।
दूसरी बात, 15 वीं, 16 वीं सदी के पूर्व वहां मस्जिद का कोई प्रमाण नहीं है। तीसरी बात, पुरातात्विक साक्ष्यों को सिर्फ एक राय बताना भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के प्रति बहुत ही अन्याय होगा। उसकी खुदाई से निकले सबूतों की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। चौथी बात, सीता रसोई, राम चबूतरा और भंडार गृह की उपस्थिति इस स्थान के धार्मिक होने के तथ्यों की गवाही देती है। पांचवी बात, 1856 – 57 तक विवादित स्थल पर नमाज पढ़ने के सबूत नहीं है। मुस्लिम पक्ष ने कहा था कि वहां लगातार नमाज अदा की जा रही थी। न्यायालय ने कहा कि 1856 से पहले अंदरूनी हिस्से में हिंदू भी पूजा करते थे। रोकने पर बाहर चबूतरे पर पूजा करने लगे। अंग्रेजों ने दोनों हिस्से अलग रखने के लिए रेलिंग बनाई थी। फिर भी हिंदू मुख्य गुंबद के नीचे ही गर्भगृह मानते थे।
विचारणीय बिंदु यह है कि यह समस्त बिंदु एकाएक प्रकट नहीं हो गये। यह तथ्य तो प्रथम उत्खनन के समय ही खोज लिये गये थे। यदि उपरेक्त वर्णित तथ्यों को उस समय ही उजागर कर दिया गया होता तो शायद सांप्रदायिकता की खाई इतनी चौड़ी नहीं होती।
अब सवाल यह कि आखिर तथ्यों को नियोजित तरीके से छुपाया क्यों गया। इसके पीछे क्या उद्देश्य हो सकता है। आखिर क्यों हमें पाठ्यक्रम, पुरातत्व, कला और अन्य माध्यमों से यही बताया गया कि राम एक मिथक हैं। लेकिन कभी राम की उस व्याप्ति को नहीं बताया गया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने रेखांकित किया है।
इसका उत्तर ठूंढने के लिये पुस्तकालयों और अभिलेखागारों का उत्खनन करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि एएसआई के पूर्व निदेशक केके मोहम्मद की तर्क पूर्ण बात और उच्चतम न्यायालय द्वारा वामपंथी इतिहासकारों से पूछे गये प्रश्नों के उत्तरों की रोशनी में तमाम कथाओं को देखने की है, सभी उत्तर खुद-ब-खुद मिल जायेंगे।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के क्षेत्रीय निदेशक रहे के.के मुहम्मद, मलयालम में लिखी अपनी आत्मकथा ‘जानएन्ना भारतीयन’ में बताते हैं कि 1976-77 में ही इस बात के सबूत मिल चुके थे कि बाबरी मस्जिद असल में मंदिर है।
बकौल मोहम्मद, 1976-77 में पुरातात्विक अध्ययन के लिए अयोध्या में प्रो. बीबी लाल की अगुवाई में खुदाई हुई थी। इस टीम में मै भी था। खुदाई के लिए जब हम वहॉं पहुंचे तो मस्जिद की दीवारों में मंदिर के खंभे साफ-साफ दिखाई देते थे। मंदिर के उन स्तंभों का निर्माण ‘ब्लैक बसाल्ट’ पत्थरों से किया गया था। हमें विवादित स्थल से 14 स्तंभ मिले थे। सभी स्तंभों में गुंबद खुदे हुए थे। ये 11वीं और 12वीं शताब्दी के मंदिरों में मिलने वाले गुंबद जैसे थे। गुंबद में ऐसे 9 प्रतीक मिले हैं, जो मंदिर में मिलते हैं। उत्खनन के लिए हम करीब दो महीने अयोध्या में रहे। उत्खनन से मिले सुबूतों के आधार पर मैंने 15 दिसंबर, 1990 को बयान दिया कि बाबरी मस्जिद के नीचे मंदिर के अंशों को मैंने स्वयं देखा है। बाबरी मस्जिद हिंदुओं को देकर समस्या का समाधान करने के लिए नरमवादी मुसलमान तैयार थे, परंतु इसे खुलकर कहने की किसी में हिम्मत नहीं थी।
खेद के साथ कहना पड़ेगा कि उग्रपंथी मुस्लिम गुट की मदद करने के लिए कुछ वामपंथी इतिहासकार सामने आए और उन्होंने मस्जिद नहीं छोड़ने का उपदेश दिया। उन्हें यह मालूम नहीं था कि वे कितना बड़ा पाप कर रहे हैं। जेएनयू के केएस गोपाल, रोमिला थापर, बिपिन चंद्रा जैसे इतिहासकारों ने कहा कि 19वीं सदी के पहले मंदिर तोड़ने का सुबूत नहीं है। उन्होंने अयोध्या को ‘बौद्घ-जैन केंद्र’ कहा। उनका साथ देने के लिए आरएस शर्मा, अनवर अली, डीएन झा, सूरजभान, प्रो. इरफान हबीब आदि भी आगे आए। इनमें केवल सूरजभान पुरातत्वविद् थे। प्रो आरएस शर्मा के साथ रहे कई इतिहासकारों ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के विशेषज्ञों के रूप में कई बैठकों में भाग लिया।
वामपंथी इतिहासकारों ने अयोध्या की वास्तविकता पर सवाल उठाते हुए लगातार लेख लिखे और उन्होंने जनता में भ्रम और असमंजस पैदा किया। वामपंथी इतिहासकार और उनका समर्थन करने वाले मीडिया ने समझौते के पक्ष में रहे मुस्लिम बुद्घिजीवियों को अपने उदार विचार छोड़ने की प्रेरणा दी। इसी कारण मस्जिद को हिंदुओं के लिए छोड़कर समस्या के समाधान के लिए सोच रहे मुसलमानों ने अपनी सोच में परिवर्तन कर लिया और मस्जिद नहीं देने के पक्ष में विचार करना शुरू कर दिया। साम्यवादी इतिहासकारों के हस्तक्षेप से उनकी सोच में परिवर्तन हुआ। इस तरह समझौते का दरवाजा हमेशा के लिए बंद कर दिया गया। अगर समझौता होता तो हिंदू- मुस्लिम संबंध ऐतिहासिक दृष्टि से नए मोड़ पर आ जाते और कई समस्याओं का सामाजिक हल भी हो सकता था।
इतिहास अनुसंधान परिषद में समस्या का समाधान चाहने वाले थे, परंतु इरफान हबीब के सामने वे कुछ नहीं कर सके।
इसके बाद हाई कोर्ट के आदेश पर एएसआई ने 12 मार्च 2003 से 7 अगस्त 2003 के बीच राम जन्मभूमि परिसर की खुदाई की। उत्खनन को निष्पक्ष रखने के लिए कुल 137 श्रमिकों में 52 मुसलमान थे। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के प्रतिनिधि के तौर पर सूरजभान मंडल, सुप्रिया वर्मा, जया मेनन आदि के अलावा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक मजिस्ट्रेट भी शामिल थे। उत्खनन को इससे ज्यादा निष्पक्ष कैसे बनाया जा सकता था? खुदाई के बाद एएसआई ने 22 सितंबर 2003 को अपनी 574 पन्नों की रिपोर्ट हाई कोर्ट को सौंपी। इन्हीं साक्ष्यों के आधार पर हाई कोर्ट के तीन जजों ने माना कि विवादित स्थल का केंद्रीय स्थल रामजन्मभूमि ही है। खास बात यह रही कि तीनों जज गर्भगृह के सवाल पर एकमत थे।
उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद भी वामपंथी इतिहासकार गलती मानने को तैयार नहीं हुए। वामपंथी इतिहासकारों का यह दुराग्रह हर स्तर पर नियोजित प्रतीत हुआ। दुराग्रह के पीछे का कारण हिंदुत्व विरोध, तुष्टीकरण या सामाजिक विघटन की मंशा हो सकती है। इसके पीछे राजनीतिक कारण भी हो सकते हैं। मसलन अयोध्या विवाद का मुद्दा आरएसएस, भाजपा के कोर एजेण्डे के रूप में जाना जाता है। यदि विवादित स्थल पर मंदिर होने के तथ्य को स्वीकार कर लिया जाता, जिसके साक्ष्य प्राप्त हो चुके थे, तो दक्षिणपंथी विचारधारा व राजनीति की बड़ी जीत होती। शायद इसी दुराग्रह ने वामपंथी इतिहासकारों को एक ऐतिहासिक झूठ गढ़ने के लिये प्रेरित किया। और इसकी कीमत पूरे देश ने चुकाई।
अब इससे अधिक विचारणीय व सचेतक क्या होगा कि सर्वोच्च अदालत ने सुनवाई के दौरान वामपंथी इतिहासकारों की रचनाओं को सबूत मानने से ही इंकार कर दिया। अदालत ने उनकी रचनाओं को व्यक्तिगत विचार कहा। दरअसल, सुनवाई के दौरान मुस्लिम पक्षकार राजीव धवन ने कोर्ट को एक बड़ा नोट सौंपा था। ‘Historians’ Report To The Indian Nation’ नामक इस नोट को जल्दबाजी में तैयार किया गया था। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के वकील द्वारा सुप्रीम कोर्ट में इस नोट को इसीलिए रखा गया, क्योंकि इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि अयोध्या का विवादित स्थल न तो श्रीराम का जन्मस्थान है और न ही बाबर ने मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनवाया। धवन द्वारा इस नोट को पेश किए जाने के बाद रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संवैधानिक पीठ ने उपर्युक्त बात कही। इस रिपोर्ट को 1991 में 4 वामपंथी इतिहासकारों द्वारा तैयार किया गया था। आरएस शर्मा, एम अतहर अली, डीएन झा और सूरज भान ने अयोध्या में हुए पुरातात्विक उत्खनन से निकले निष्कर्ष का अध्ययन किए बिना ही इस रिपोर्ट को तैयार किया था। उत्खनन का आदेश इलाहबाद हाईकोर्ट ने दिया था। इसके बाद निकले निष्कर्षों से साफ़ पता चलता है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद का निर्माण मंदिर को तोड़ कर किया गया था। बावजूद इसके चारों वामपंथी इतिहासकारों ने लिख दिया कि वहां कोई मंदिर नहीं था।
जब धवन ने इस रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के सामने रखा तो कोर्ट ने कहा कि वे अधिक से अधिक इसे बस एक विचार अथवा अभिमत मान सकते हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन इतिहाकारों ने पुरातात्विक उत्खनन से मिली चीजों और उससे निकले निष्कर्षों को ध्यान में नहीं रखा था।
कोर्ट ने कहा कि इन इतिहासकारों द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया असावधानीपूर्वक संचालित की गई लगती है। एक तरह से सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि उन्होंने बिना सबूतों को देखे और अहम पहलुओं का अध्ययन किए बिना रिपोर्ट तैयार कर के कुछ भी दावा कर दिया। इससे पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने भी ऐसे इतिहासकारों के दावों को नकार दिया था। सुप्रिया वर्मा नामक एक कथित एक्सपर्ट ने भी एएसआई के डेटा को ही ग़लत ठहरा दिया। मजे की बात यह कि उन्होंने खुदाई से जुड़ी ‘रडार सर्वे रिपोर्ट’ को पढ़े बिना ही ऐसा कर दिया।
सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के एक अन्य ‘एक्सपर्ट’ गवाह डी मंडल ने कोर्ट में स्वीकार किया कि अयोध्या गए बिना ही उन्होंने विवादित स्थल के ऊपर ‘Ayodhya: Archaeology after Demolition’ नामक एक भारी-भरकम पुस्तक लिख डाली। उन्होंने कोर्ट को बताया कि उन्हें बाबर के बारे में बस इतना पता है कि वह 16वीं शताब्दी का शासक था। इसके अलावा उन्हें बाबर के बारे में कुछ नहीं पता।
अब सोचिये, जिन इतिहासकारों (कथाकार कहा जाये तो ज्यादा बेहतर होगा) के दम पर विगत 7 दशकों से कथित सेकुलर जमात, राम, राम मंदिर, राम से जुड़े संदर्भों को नकारने में सामाजिक विघटन तक को स्वीकार करने को तैयार रहा, वह कितने शातिर थे। क्या उन्हे माफ किया जा सकता है। भारत को साम्प्रदायिकता जैसे कुत्सित विचार की बुनियाद पर बांटने की सुनियोजित साजिश करने वाले इन इतिहासकारों (कथाकारों) को आखिर क्या दण्ड मिलना चाहिये। इन्होने तो देश के इतिहास को गलत तरीके से पेश करने का भी अपराध किया है। दीगर है यह अपराध एक बार नहीं, निरंतर हो रहा है, जानबूझ कर हो रहा है। तो क्या अब देश की नई नस्ल को सही इतिहास पढ़ने को मिलेगा क्योंकि ओवैसी साहब ने तो ऐलान कर दिया है कि हम अपनी नस्लों को बतायेंगे कि 500 बरस से बाबरी मस्जिद यहीं तामीर थी। मतलब वैचारिक प्रदूषण फैलाने वाले हारे नहीं हैं, थमे नहीं है। अब समय आ गया है कि वैचारिक विष वमन को निष्प्रभावी करने के लिये राज सत्ता विशेष तैयारी करे, अन्यथा फिर किसी मुद्दे पर कोई झूठा कथानक गढ़ कर देश को पांच दशकों तक के लिये बांट दिया जायेगा।