प्रणय विक्रम सिंह
राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद अब नागरिकता संशोधन विधेयक कानून की शक्ल में आ गया है। अब अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से धार्मिक प्रताड़ना के कारण भारत आए हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदायों के लोगों को भारतीय नागरिकता आसानी से प्राप्त हो सकेगी।
ध्यातव्य है कि उत्पीड़न झेल रहे हिंदू, बौद्ध या सिखों ने बंटवारे की मांग नहीं की थी। बंटवारा उन पर थोपा गया था। 1947 से पाकिस्तान और फिर 1971 के बाद बांग्लादेश में चल रहा जातिसंहार बंटवारे की त्रासदी का ही विस्तृत संताप है। भारत ने इन प्रताड़ित समूहों को अब तक किसी प्रकार की विधिक सहायता प्रदान न कर अनाथ बना कर छोड़ दिया था। नागरिकता विधेयक इस भूल का देर से हुआ प्रायश्चित है।
जिन स्वयंभू धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने आज से पहले कभी किसी समूह को सहायता प्रदान करने का प्रयास नहीं किया, उन्होंने इस विधेयक के आते ही लाभार्थियों की पात्रता पर प्रश्न खड़े कर दिए। अनुच्छेद 14 और 15 का हवाला देकर बिल की संवैधानिकता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। विशेषकर अनुच्छेद 14 के दो सिद्धांतों ‘इंटेलिजिबल डिफरेंशियल’ और ‘रीजनेबल नैक्सस’ को उद्धृत कर यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि यह बिल दोनों सिद्धांतों पर खरा नहीं उतरता।
नागरिकता संशोधन विधेयक विशिष्ट परिस्थितियों से उत्पन्न मानवीय संकट का प्रतिउत्तर है। यदि इतनी बड़ी विभीषिका से प्रभावित लोगों के लिए विशिष्ट भेद के अंतर्गत कानून बनाने का तर्कसंगत आधार नहीं माना जाएगा तो फिर किसे माना जाएगा? इसीलिए विधेयक में सिर्फ अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंग्लादेश में त्रस्त अल्पसंख्यकों के लिए नागरिकता का प्रावधान है। जो अनुच्छेद 14 की दुहाई देकर विधेयक का विरोध कर रहे हैं उनके तर्क को माना जाएगा तो फिर दुनिया का कोई भी व्यक्ति स्वत: भारतीय नागरिकता पाने का हकदार हो जाएगा।
संवैधानिक प्रावधानों की मनमाफिक व्याख्या करने वाले आलोचक वे लोग हैं जो या तो भारत को संप्रभु, स्वायत्त राष्ट्र न मान कर एक सराय मानते हैं या फिर इन तीन देशों में बहुसंख्यक समुदाय के द्वारा अल्पसंख्यकों के धार्मिक उत्पीड़न को नकारते हैं। नेहरू के समय बनाए गए नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा-5 की विभिन्न उपधाराओं में अविभाजित भारत में पैदा हुए नागरिक, उनके विवाहित या नाबालिग बच्चे और पहली पीढ़ी, जो कि एक वर्ष से भारत में रह रही हो, को भी इन्हीं परिस्थितियों वश नागरिकता का प्रावधान मिला था। घुसपैठ को रोकने और अन्य शरणार्थियों की मदद करने के लिए नागरिकता अधिनियम, 1955 में 1986, 1992, 2003 और 2005 में संशोधन लाए गए। चूंकि समस्या जस की तस रही इसलिए एक और संशोधन पूरी तरह न्यायोचित है। संविधान की संवेदनहीन शाब्दिक व्याख्या तक सिमटे विरोधियों को विभिन्न अनुच्छेदों से पहले संविधान की प्रस्तावना पर भी जाना चाहिए।
संविधान के प्रारंभिक शब्द ‘इंडिया दैट इज भारत…’ भारतीय गणतंत्र को राष्ट्र- राज्य की मान्यता देते हैं। राष्ट्र-राज्य वह अवधारणा है जिसमें राज्य पुरातन सभ्यता और सांस्कृतिक पहचान का उत्तराधिकारी होता है और उसके ऊपर पुरातन पहचान को बनाए रखने का उत्तरदायित्व होता है। इसी उत्तरदायित्व के पालन में नागरिकता विधेयक द्वारा पड़ोस में प्रताड़ित हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी एवं ईसाई धर्मावलंबियों को राहत देना भारतीय संघ की नैतिक एवं संवैधानिक बाध्यता है। राष्ट्रपति की संस्तुति के पश्चात अब यह कानून की शक्ल ले चुका है। BJP नीत एनडीए सरकार ने इस निर्णय के माध्यम से धार्मिक आधार पर प्रताड़ित नस्लों को मुस्कुराने को बड़ी वजह प्रदान की है। एक गहरे घाव पर मरहम लगाया है।