…15274 हत्याओं से रंगे हैं कांग्रेस निजाम के हाथ

Picture of प्रणय विक्रम सिंह

प्रणय विक्रम सिंह

@SamacharBhaarti

प्रणय विक्रम सिंह

  तेग मुंसिफ हो जहां दारो रसन हो
शाहिद बेगुनाह कौन है इस शहर में कातिल के सिवा  

आज से 35 वर्ष पूर्व 2 और 3 दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात यूनियन कार्बाइड से निकली जहरीली गैस ने एक ही रात पांच हजार से अधिक लोगों को मौत की नींद सुला दिया। और हजारों की संख्या में वहां के निवासियों को कई-कई तरह की घातक बीमारियां दे दीं। ऐसी-ऐसी बीमारियां जिसे सुनकर-देखकर मन का हर भावुक तार झनझना उठे। कोई हमेशा के लिए अपाहिज हो गया, किसी की जिंदगी में आंखें सिर्फ अंधेरों से उलझने के लिए बची हैं। अंदरूनी रोगों की तो कोई गिनती ही नहीं है। त्रासदी इतनी भयंकर थी कि भोपाल की सड़कें, चौराहें, पार्क, लाशों से भरे थे। कब्रगाह और श्मशान घाटों में अंतिम क्रियाकर्म के लिए स्थान ही नहीं बचा था। अस्पतालों के शवगृह भर चुके थे। पोस्टमार्टम करने वाले हाथ थक चुके थे, पर मौत थी कि शहर को निगल जाने पर आमादा थी।

02-03 दिसंबर की रात यूनियन कार्बाइड के टैंक-610 से निकली गैस का प्रभाव इतना घातक होगा, इसे किसी ने सोचा न था। शहर में मौत का तांडव हिरोशिमा और नागासाकी की याद दिला रहा था। जो लोग इस त्रासदी में मरने से बच गए थे, उनमें से कई तो तिल-तिल कर मर गए और जो लोग अब भी बचे हैं वे अपनी बीमारियों को लेकर अस्पतालों के चक्कर लगा रहे हैं। इस त्रासदी से सिर्फ उस समय की पीढिय़ों के लोग ही प्रभावित नहीं हुए बल्कि उसके बाद पैदा हुई पीढिय़ां भी इसके असर से अछूती नहीं रहीं। त्रासदी के बाद भोपाल में जिन बच्चों ने जन्म लिया उनमें से कई विकलांग पैदा हुए तो कई किसी और बीमारी के साथ इस दुनिया में आए और अभी भी आ रहे हैं।

बीसवीं सदी की इस भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के गुनहगारों को सजा दिलाने का मामला अभी भी कानूनी और प्रकारांतर से राजनीतिक झमेलों में उलझा हुआ है। पच्चीस साल तक लगातार चली न्यायिक प्रक्रिया में राज्य की सरकारों ने यूनियन कार्बाइड के अध्यक्ष वारेन एंडरसन को प्रकरण से बाहर निकलने का पूरा मौका दिया। भारत की सबसे भयंकरतम औद्योगिक त्रासदी के बाद एक हफ्ते के भीतर किसने यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वॉरेन एंडरसन को भारत से बाहर जाने दिया? इस सवाल का जवाब देने के लिए किसी विशेष खोजबीन या चीखते शीर्षकों की जरूरत नहीं है। सच्चाई यह है कि इस बात के पर्याप्त लिखित और दृश्य प्रमाण व दस्तावेज मौजूद हैं, जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि “भारत की राजव्यवस्था” ने एंडरसन को जाने का “सुरक्षित रास्ता” मुहैया कराया।

“सरकार” में भोपाल में अर्जुन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस और केंद्र में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार दोनों ही शामिल थे। दुर्भाग्य से इस बुनियादी और सीधी सी सच्चाई को स्वीकार करने के बजाय हमने प्रतिदिन खंडन-मंडन, अंतर्विरोधों और खुलासों की प्रदर्शनी लगा रखी है। यह सब कितना हास्यास्पद है, क्योंकि एक दुखद त्रासदी में 15 हजार से ज्यादा लोग मारे गए और उनके प्रति कोई गंभीर सहानुभूति व चिंता नहीं है। एक ओर जहां जीवनपर्यंत अर्जुन सिंह ने बुद्ध की तरह मौन धारण करे रखा, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस अपने प्रिय नेता राजीव गांधी का बचाव करने के लिए समस्त हदें लांघने में ही लोकतंत्र की रक्षा समझती है। यहां तक कि विपक्ष भी भोपाल मामले में आपातकाल जैसा व्यवहार कर रहा है। साफगोई और ईमानदारी की बात यह है कि इस मामले में न तो मौन उचित है और न ही प्रमादपूर्ण आलाप।

दीगर है कि घटना के चार दिन बाद एंडरसन 7 दिसंबर 1984 को यूनियन कार्बाइड की खोज खबर लेने भोपाल आया था। जहां उसे कानूनी तौर पर गिरफ्तार कर पच्चीस हजार रुपये के मुचलके पर इस हिदायत के साथ छोड़ा गया था कि न्यायिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए वह समय-समय पर जरूरत के अनुसार भारत आता रहेगा, पर एंडरसन कभी भारत वापस नहीं आया। उसके बात भारत की सक्षम न्यायपालिका ने उसे भगोड़ा करार दे कर अपने न्याय की हदों की मुनादी कर दी।

एंडरसन पर धारा 92, 120बी, 278, 304, 426 और 429 के अंतर्गत गैर-इरादतन हत्याओं का मामला दर्ज किया जाता है। दोपहर 3:30 बजे एसपी पुरी उसे रिहाई के बारे में बताते हैं। उसे दिल्ली भेजने के लिए विशेष विमान की व्यवस्था की जाती है। 25,000 रुपए का बॉन्ड और कुछ जरूरी कागजों पर साइन कर एंडरसन दिल्ली के लिए उड़ जाता है, जहां से वह अमेरिका चला जाता है। 29 सितंबर 2014 को अमेरिका के फ्लोरिडा में उसकी मौत होती है। लेकिन, दुनिया को करीब एक महीने बाद इसकी खबर दी जाती है।

यहां सवाल यह खड़ा हो सकता है कि हादसे तो होते रहे हैं और हर हादसा अपने पीछे तबाही का यही नर्क छोड़कर जाता है फिर इसमें नया क्या है? नया यह है कि यह हादसा प्रकृतिजन्य नहीं वरन मानवजनित है। नया है, 25 साल बाद हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था का वह अट्टहास जिसे फैसले का नाम दे कर अपने ही देश के रोते-झुलसते तिल-तिल मरते पीड़ितों के गाल पर एक तमाचे की तरह जड़ा गया और उसके बाद एक रही-सही उम्मीद भी डबडबाती आंखों के साथ धुंधली हो जाती है। लेकिन सच मरता नहीं है। दर्द से बिलखती नम आंखो में तैरती इंसाफ की ख्वाहिशें सच को सामने आने पर विवश कर ही देती हैं। देश की सबसे बड़ी गैस त्रासदी से जुड़ा कड़वा सच बाद में सामने आया है।

भोपाल के तत्कालीन डीएम मोती लाल सिंह ने खुलासा किया कि सूबे की सरकार ने गैस त्रासदी के मुख्य आरोपी एंडरसन को बचाने का पूरा प्रयास किया था। उनके अनुसार 7 दिसंबर 1984 की सुबह एंडरसन भोपाल आया था लेकिन उसी शाम को राज्य सरकार के भारी दबाव के चलते उसे चार्टर्ड प्लेन से वापस दिल्ली भेज दिया गया। मोती लाल सिंह ने कहा कि उस समय राज्य के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और राज्य के मुख्य सचिव ब्रम्ह स्वरूप थे, जिनके दिशा निर्देश पर एंडरसन को पकड़कर छोड़ दिया गया और सही सलामत दिल्ली भेजा गया। उन्होंने राज्य सरकार की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहा कि 7 दिसंबर को एंडरसन को पकड़कर विमान से भोपाल लाया गया था लेकिन उस दिन सचिव ब्रम्ह स्वरूप ने अपने कमरे में हमें बुलाकर यह निर्देश दिया कि एंडरसन को सही सलामत वापस भेजना है, उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। सचिव ने कहा कि एंडरसन को भोपाल एयरपोर्ट से ही वापस भेजना है, जिसके बाद एक चार्टर्ड विमान की व्यवस्था करके उसे दिल्ली भेज दिया गया। सत्ता के शिखरों पर चलने वाली धोखेबाजी, सौदेबाजी, साजिशों और बईमानी की अंतहीन कहानी का यह एक नमूना भर है। इसमें एक हाईप्रोफाइल सनसनीखेज धारावाहिक का पूरा पक्का मसाला है।

गैस त्रासदी आजाद भारत का अकेला ऐसा मामला है, जिसने लोकतंत्र के तीनो स्तंभों को सरे बाजार नंगा किया है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कई अहम ओहदेदार एक ही हमाम के निर्लज्ज नंगों की कतार में खड़े साफ नजर आए। इस त्रासदी पर एक पत्रकार की अंग्रेजी में लिखी पुस्तक के कवर का चित्र मैने देखा। इस त्रासदी की भयावहता और खौफ को उजागर करने के वह लिए काफी था। देखने के बाद कलेजा मुंह को आ रहा था। कवर में एक मृत शिशु का चित्र था, पथरायी आंखों वाला मृत शिशु का शव जिसे पिता के हाथ जमीन में दफना रहे हैं। रोंगटे खड़े कर देने वाला वही चित्र अब अखबारों में उन लोगों के बैनरों में दिख रहा है जो भोपाल गैस त्रासदी पर आये फैसले से नाखुश हैं और जगह-जगह इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। जिस किसी भी इंसान में तनिक भी इंसानियत या संवेदना है उसके दिल को हिला देने के लिए वह चित्र ही काफी है। पर पता नहीं सरकारों का दिल क्यों नहीं दहला। आखिर वक्त रहते वारेन एंडरसन के प्रत्यर्पण की गंभीर कोशिश क्यों नहीं की गयी? उसके बाद भी जो दोषी पाये गये उन्हें इतनी कम सजा क्यों दी गयी? होना तो यह चाहिए था कि इस गंभीर अपराध के लिए ऐसी सजा दी जाती जो आने वाले वक्त के लिए सबक होती और जिसके खौफ  से कोई निरीह लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करने से डरता। आखिर ऐसा क्यों नहीं हुआ?

दरअसल भोपाल का हादसा हमारे हिंदुस्तान का सच्चा आईना है। भोपाल ने बता दिया है कि हम लोग कैसे हैं, हमारे नेता कैसे हैं, हमारी सरकारें और अदालतें कैसी हैं। कुछ भी नहीं बदला है। ढाई सौ साल पहले हम जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं। गुलाम, ढुलमुल और लापरवाह!  सच है कि जिंदा कौमें ही मुल्क को जाबांज तेवर देती हैं। शायद वो हम हैं नहीं।


अब देखिये कि  1989 में सुप्रीम कोर्ट ने बड़ी खुशी-खुशी भारत सरकार और यूनियन कार्बाइड के बीच तकरीबन एक लाख गैस पीडि़तों के मुआवजे के बतौर 470 मिलियन डॉलर का समझौता कराया। लेकिन सच्चाई तो यह है कि प्रभावित लोगों की वास्तविक संख्या कोर्ट द्वारा बताई गई संख्या की पांच गुना थी, लेकिन उन सब लोगों को कभी पूरा मुआवजा नहीं मिला। 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने जानते-बूझते भोपाल त्रासदी के अभियुक्तों पर लगे आरोपों पर लीपापोती कर दी और सीबीआई ने उसे कोई चुनौती भी नहीं दी।

हकीकत यह है कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस अहमदी, जिन्होंने भोपाल मामले में फैसला सुनाया था, उन्हें बाद में भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट हॉस्पिटल का प्रमुख बना दिया गया। सच्चाई यह है कि न तो अभी तक दुर्घटना की जगह से विषैले कचरे को पूरी तरह साफ किया गया है और न ही आसपास रहने वाले लोगों के लिए पीने के पानी की समुचित व्यवस्था की गई है।

सच्चाई यह भी है कि 1984 के बाद से कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने मध्य प्रदेश पर शासन किया। यदि आप भोपाल की जेपी नगर कॉलोनी में घूमें तो स्पष्ट दिखाई देता है कि सरकार ने उन पीडि़तों के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। दीगर है कि पीडि़तो के लिए इंसाफ की गुहार कर रहे संगठन आज अपनी लड़ाई को महज मुआवजे तक सीमित कर रहे हैं जबकि लडाई इंसाफ पाने की चल रही है।

हम एक विशेष प्रकार की मुआवजावादी मानसिकता के शिकार होते जा रहे हैं। हम इस विषय पर तनिक भी चिंतन नहीं करना चाहते की मुआवजा इंसाफ नहीं है। मुआवजा इंसाफ नहीं होता है। मुट्ठी भर मठाधीश, पांच लाख निर्दोषों को छल रहे हैं। पूरे 35 बरस से। तब ये बेगुनाह निर्ममता से बर्बाद कर दिए गए। अब निर्लज्जता से प्रताडि़त किए जा रहे हैं। कानून के नाम पर। किंतु अन्याय की सीमा होती है। न्याय करने वाले हर व्यवस्था में होते ही हैं। दुखद यह है कि उन्हें झकझोरना पड़ता है। दरअसल यह शोक का नहीं बल्कि सोंच का समय है।

आज भोपाल हमसे, आपसे एक ही सवाल पूछ रहा है कि क्यों हमारे नेताओं और लोकतंत्र को लकवा मार गया है। क्योंकि 35 साल और पंद्रह हजार मौतों के बाद भी न्याय का इंतजार है। क्यों? किसी हादसे-त्रासदी में बडे और नामचीन शख्स के शामिल होते ही हमारी सरकारों की प्राथमिकताएं क्यों बदल जाती हैं। क्यों नहीं सरकारें जनभावना को संतुष्ट करने के लिये पहल कर रही हैं। आखिर सरकार चाहे तो क्या नहीं कर सकती? सब जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने तो शाहबानों को गुजारा भत्ता दिए जाने का फैसला दिया था। सरकार ने एक कानून बनाकर उसे खत्म कर दिया। केरल के मल्लापेरियार बांध से तमिलनाडु पानी लेता था। सुप्रीम कोर्ट ने बांध की ऊंचाई बढ़ाने का फैसला दिया तो केरल ने विधानसभा में कानून बदलकर उस फैसले को निरर्थक कर दिया। इंदिरा गांधी ने किस ताकत के साथ इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को अनदेखा किया था, वह देश को भलीभांति याद है। सब सरकार के हाथ में है। 35 साल में कितनी ही सरकारें गिरीं। नए सत्तानशीन कुर्सी पर आए। मगर हर बार भोपाल गैस कांड के आरोपितों को सजा के लिए प्रधानमंत्री निवास के समक्ष विरोध-प्रदर्शन जारी रहा। इस बीच कोई नहीं जागा, सब सोए रहे। पर अब जम्हूरियत की आबरू के लिये, लोकशाही में आवाम के यकीन के लिये निजाम का जागना बेहद जरूरी है।

सवाल है कि कब सरकारों की सरमाएदारी को जम्हूरी किरदार सलाखों को पीछे ढकेलेगा? आज भी छोटे से बेजान बच्चे की आधी दफन जिंदा तस्वीर में खुली आंखे हिंन्दुस्तानी जम्हूरियत के इबादतखाने ससंद से सवाल पूछ रही हैं कि हमें इंसाफ कब मिलेगा! पर आश्चर्य संसद, सड़क, सभ्यता सब मौन हैं।   

Share this post:

READ MORE NEWS...

LIVE CRICKET SCORE

CORONA UPDATE

Weather Data Source: Wetter Indien 7 tage

RASHIFAL

2024 Reserved Samachar Bhaarti | Designed by Best News Portal Development Company - Traffic Tail