दानवीर भामाशाह : स्वराज्य-संघर्ष के साक्षात संबल

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प्रणय विक्रम सिंह

@SamacharBhaarti

जब अकबर की अतिशक्ति का अहंकार, अस्मिता के अरावली पर आक्रमण करता है, जब राजनीति केवल रणनीति बन जाए और जब अधीनता को ही अवश्यंभावी मान लिया जाए तब भामाशाह जैसे व्यक्तित्व ही होते हैं, जो इतिहास की धारा मोड़ते हैं।

वे तलवार नहीं उठाते किंतु तलवारों को साधन देते हैं। वे युद्ध में नहीं उतरते पर योद्धाओं को युद्ध के लिए सक्षम बनाते हैं। वे मंत्र नहीं पढ़ते लेकिन मंत्रियों से अधिक प्रभावशाली निर्णय लेते हैं। वे केवल व्यापारी नहीं, धर्म, धन और देश के त्रिदेव बन जाते हैं।

वे कोई साधारण वैश्य नहीं थे, वे धर्म और ध्वज के लिए समर्पित संघर्षशील संन्यासी थे। उन्होंने जब स्वर्ण की थाली नहीं, स्वत्व की थाती प्रताप के चरणों में अर्पित की, तब अकबर का अभिमान कांप उठा और मेवाड़ की मर्यादा पुनः जाग उठी।

वर्ष 1576 की हल्दीघाटी में प्रताप वीरता से लड़े, पर साम्राज्यवादी संसाधनों के समक्ष धनहीनता उनकी सबसे बड़ी व्यथा बनी। अपनी मातृभूमि को पुनः प्राप्त करने की आकांक्षा लिए प्रताप जंगलों में, गुफाओं में, पहाड़ियों पर आश्रय लिए हुए थे। जन और जनपद दोनों भयाक्रांत थे। यह वह काल था जब केवल एक पुरुष की आस्था उन्हें पुनर्जीवन देने आई और वे थे भामाशाह।

भामाशाह ने अपने घर के कोषागार का कोष राष्ट्र के चरणों में अर्पित कर दिया था। इतिहासकार जेम्स टॉड के अनुसार, भामाशाह ने एक ही क्षण में 25 लाख रुपए और 20 लाख अशर्फियां राणा प्रताप को समर्पित कीं, जो एक साथ 25,000 सैनिकों का एक वर्ष तक संचालन कर सकती थीं।

यह दान नहीं था, यह धन राष्ट्रयज्ञ में आहुति थी। यह करुणा नहीं, बल्कि कर्तव्य का क्रांति-स्वरूप था। वे बोले ‘यह सम्पत्ति राष्ट्र से मिली है, इसे राष्ट्र को अर्पित करना मेरा धर्म है।’

भामाशाह, पराक्रम के पार्श्वनायक और परमार्थ के पुरोधा थे। वे युद्धभूमि में नहीं लड़े, पर हर युद्ध में उनकी वाणी, उनका समर्पण, उनकी पूंजी लड़ी। वे कवच नहीं धारण करते थे, पर राष्ट्र को आर्थिक कवच प्रदान करते थे। वे मंत्र नहीं पढ़ते थे, पर मेवाड़ के भाग्य का पुनर्मंत्रण उन्हीं के त्याग से संभव हुआ।

उनकी भूमिका बहुआयामी थी। प्रशासक के रूप में वे मेवाड़ के महामंत्री बने। रणनीतिकार के रूप में उन्होंने गुप्तचरी, कर व्यवस्था और सैन्य पुनर्गठन को दिशा दी। संघटक के रूप में उन्होंने सामंतों, व्यापारियों और कृषकों को एकजुट किया।

वे केवल राष्ट्रहित के व्यापारी नहीं थे, वे राष्ट्र-ऋषि थे। भामणिया जोधाजी की संतान भामाशाह ने दिखाया कि जब धन ‘धर्म’ के साथ जुड़ता है, तो वह दान नहीं, दुर्गा का शस्त्र बन जाता है। उनका धन किला नहीं बना, उन्होंने कोई गढ़ नहीं सजाया, उन्होंने उस धन से रण सजाया और राणा को फिर से रणक्षेत्र का राजा बनाया।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘दत्तं धर्माय यशसे, न तु भोगाय।’

इसी प्रकार भामाशाह का दान भी भोग के लिए नहीं, यश और यज्ञ के लिए था। उनकी थाती में केवल मुद्रा नहीं थी, उसमें मर्यादा, ममता और मातृभूमि की मिट्टी मिली थी।

भामाशाह ने न स्वयं के लिए राज्य मांगा, न सम्मान, न यश। उनका सम्पूर्ण जीवन ‘राष्ट्र सर्वप्रथम’ के विचार का मूर्तिमान प्रमाण था। वे इस यथार्थ को जीते थे कि धन तब तक मूल्यहीन है, जब तक वह धर्म के लिए समर्पित न हो।

महान इतिहासकार जेम्स टॉड लिखते हैं कि ‘यदि भामाशाह का सहयोग न होता, तो प्रताप का प्रतिकार अधूरा रह जाता।’ कर्नल टॉड उन्हें “Finance General of India’s Liberty” कहते हैं। डॉ. विश्वंभर नाथ पांडेय के अनुसार ‘भामाशाह भारतीय राष्ट्रवाद के पहले ‘संपत्ति-समर्पित’ योद्धा थे।’

गोपीनाथ शर्मा कहते हैं कि ‘महाराणा प्रताप की लौह-प्रतिज्ञा को व्यवहार में परिणत करने वाला व्यक्तित्व यदि कोई था, तो वह भामाशाह था।’ रवींद्रनाथ टैगोर ने भामाशाह को ‘राष्ट्रधर्मी धनदाता’ की संज्ञा दी थी।

आज जब व्यापार को लाभ का उपक्रम माना जा रहा है, दानवीर भामाशाह की गाथा बताती है कि लाभ यदि लोभ से जुड़ा हो तो पतन होता है, पर यदि लाभ लोक के लिए हो तो वह राष्ट्र का उत्थान करता है।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जैसे राष्ट्रनायक जब प्रदेश के हर जिले में ‘भामाशाह सम्मान’ की घोषणा करते हैं, जब वे करदाता व्यापारियों को केवल ‘करदाता’ नहीं, बल्कि ‘राष्ट्र-निर्माता’ की उपाधि प्रदान करते हैं, तब यह किसी योजनाबद्ध पुरस्कार प्रणाली का आयोजन भर नहीं होता, यह भारतीय परंपरा में व्यापारी वर्ग के राष्ट्रधर्मी पुनर्स्थापन का शंखनाद होता है।

आज जब उत्तर प्रदेश आत्मनिर्भरता, उद्यमिता और अर्थ-व्यवस्था की त्रिवेणी पर खड़ा होकर नए भारत का ग्रोथ इंजन बन रहा है, तब भामाशाह जैसे पूज्य पुरुषों की परंपरा पुनः जीवंत हो रही है।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का यह स्पष्ट मत है कि ‘जो व्यापार में पारदर्शिता लाता है, वह राष्ट्र की नींव को सुदृढ़ करता है। जो कर देता है, वह केवल सरकारी दायित्व नहीं निभाता, वह राष्ट्रधर्म निभाता है।’

आज जब हम राष्ट्र निर्माण की नवीन गाथा लिख रहे हैं, जब उद्योग न केवल उत्पादन का, अपितु उत्तरदायित्व का पर्याय बन रहा है, तब भामाशाह जैसे त्यागी चरित्र न केवल इतिहास की स्मृति हैं, बल्कि राष्ट्र-राज्य की मूल चेतना हैं।

वे भूतकाल के भूषण नहीं, ‘विकसित भारत-विकसित उत्तर प्रदेश’ के वरणीय विमर्श हैं। नए भारत के भविष्य के प्रारूप हैं। उनका जीवन इस बात का साक्षात प्रमाण है कि जब धन धर्म का दास बनता है और व्यापारी राष्ट्रधर्म का प्रहरी तब व्यापार केवल लाभ का नहीं, लोकमंगल का माध्यम बनता है। तब संपत्ति सिर्फ संग्रह नहीं, सेवा का संकल्प बन जाती है। यही वह ‘नवधर्म’ है, जिसे आज का नया उत्तर प्रदेश ‘आत्मनिर्भर भारत’ की आत्मा बना रहा है!

भामाशाह भूतकाल के नायक नहीं, राष्ट्र के स्वाभिमान और समृद्धि की नींव हैं। उस नींव के प्रतीक, जिस पर योगी आदित्यनाथ का नवयुगीन उत्तर प्रदेश राष्ट्र के पुनरुत्थान का दुर्ग गढ़ रहा है। राष्ट्र की समृद्धि के साथ सांस्कृतिक स्मृति की पुनर्रचना, यही है भामाशाह का संदेश और योगी शासन का संकल्प।

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