प्रणय विक्रम सिंह
…त्रेता युग में ऐसे ही कभी मर्यादा पुरुषोत्तम को भी वन में अपने पिता के देहांत का समाचार मिला था। उन्होने भी अपने कर्तव्य को प्रमुखता देते हुए अयोध्या वापस जाने से इंकार कर दिया था।
आज की सुबह काफी बैचैनी भरी थी। खबरों की दुनिय़ा के बांशिंदों से लेकर मुख्यमंत्री आवास पर होने वाली प्रातः कालीन समीक्षा बैठक में शिरकत करने वाले अधिकारियों के मन-सिंधु में अनेक सवालों, शंकाओं और दुविधाओं की लहरें हिलोरें ले रही थीं।
क्या समीक्षा बैठक होगी, मुख्यमंत्री जी मृत्यु-द्वार पर खड़े अपने लौकिक पिता के दर्शन हेतु कितने बजे निकलेंगे, लगता है मृत्यु हो गई है, किंतु अभी बताया नहीं जा रहा है, जैसे सवाल, कल्पना और वास्तविकता के तटबंधों से टकराकर लाकडाउन के खामोश वातावरण में भी शोर भर रहे थे।
खैर, मुख्यमंत्री के लखनऊ स्थित सरकारी आवास पर कोराना विषयक समीक्षा बैठक अपने निर्धारित समय पर प्रारम्भ हो गई। समीक्षा का क्रम चलने लगा। लेकिन हमेशा ऊर्जा और आक्रमकता से लबरेज रहने वाले योगी आदित्यनाथ के मुख पर छाई उदासी, अपने आवरण को लांघ कर बैठक कक्ष में आसीन सभी लोगों का साक्षात्कार कर रही थी। प्रश्नों के क्रम रोज की तरह चल रहे थे। बैठक में ऊर्जा भी थी, कर्तव्य बोध की ललकार भी थी। लेकिन इन सबके दरम्यान शायद “चित्त” अनुपस्थित था। लेकिन एक राजर्षि कब अपने मन के अधीन हुआ है, जो आज हो जाता। लिहाजा मन की व्यथा, व्यवस्था के साथ सामंजस्य बना कर अपने उत्तरदायित्वों के निर्वहन में संलग्न हो गई।
तभी लगभग 10: 44 मिनट पर मुख्यमंत्री के निजी सचिव बल्लू राय ने बैठक कक्ष में प्रवेश किया। सभी के हृदय अनिष्ट की आशंका से भर उठे। मुख पर अनन्त पीड़ा को समेटे बल्लू राय ने एक कागज की पर्ची को मुख्यमंत्री के हाथों में सौप दिया। शायद वह पर्ची, योगी आदित्यनाथ को उनके पिता के निधन का पैगाम थी। उन्होने किसी से बात कराने का आदेश दिया। लगभग एक मिनट की बात में योगी जी ने कहा कि मीटिंग के पश्चात बात करता हूं।
हृदय में उमड़े संताप के अनन्त सागर को संभलाते हुए योगी जी ने बैठक को पुनः प्रारम्भ तो कर दिया किंतु आखों की नमी, मनावेगों की चुगली कर रही थी। कोरोना वायरस संक्रमण के भंवर से उ.प्र. को निकालने को कटिबद्ध “संकल्प मूर्ति” ने बगैर विचलित हुए टीम-11 के साथ समीक्षा बैठक को पूर्ण किया।
उसके पश्चात योगी आदित्यनाथ ने अपने पूर्वाश्रम के जन्मदाता को श्रद्धांजलि ज्ञापित करते हुए पत्र में लिखा कि “अंतिम क्षणों में पिताजी के दर्शन की हार्दिक इच्छा थी, परंतु वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के खिलाफ देश की लड़ाई को उत्तर प्रदेश की 23 करोड़ जनता के हित में आगे बढ़ाने के कर्तव्यबोध के कारण मैं दर्शन न कर सका। कल 21 अप्रैल को अंतिम संस्कार के कार्यक्रम में लॉकडाउन की सफलता तथा महामारी कोरोना को परास्त करने की रणनीति के कारण भाग नहीं ले पा रहा हूं। पूजनीया माँ, पूर्वाश्रम से जुड़े सभी सदस्यों से भी अपील है कि लॉकडाउन का पालन करते हुए कम से कम लोग अंतिम संस्कार के कार्यक्रम में रहें।”
कर्तव्यबोध में डूबा हुआ श्रद्धांजलि पत्र का एक-एक शब्द “मुख्यमंत्री” पद को प्रतिष्ठा की नई ऊचाइयां प्रदान कर रहा है।
त्रेता युग में ऐसे ही, कभी मर्यादा पुरुषोत्तम को भी वन में अपने पिता के देहांत का समाचार मिला था। उन्होने भी अपने कर्तव्य को प्रमुखता देते हुए अयोध्या वापस जाने से इंकार कर दिया था। लेकिन रघुनंदन के विलाप ने सम्पूर्ण प्रकृति को द्रवित कर दिया था। जब इंद्री निग्रह राम की यह स्थिति थी तो भला राम का आराधक, कैसे व्याकुल नहीं हुआ होगा! उन्हें अपने पूर्वाश्रम के जन्मदाता से वह वार्तालाप तो अवश्य याद आया होगा, जब सन्यास लेने की चिठ्ठी पा कर योगी के पिता, गोरखनाथ मंदिर से उन्हें वापस लेने आये थे। पिता ने योगी को देखते ही पूछा…
“ये क्या हाल बना रखा है? चलो यहां से।”
“छोटे परिवार से एक बड़े परिवार में सन्यासी के रूप में मिलन है। उस रूप में जीवन जीने जा रहा हूं।”
” तो ठीक है, ये भिक्षा ले और अपना नया जीवन शुरू कर।”
उस “आज्ञा-पथ” के पथिक योगी आदित्यनाथ के आचरण से सदैव की भांति आज फिर एक बार उनके “नए जीवन” की प्रतिबद्धताएं मुखरित हो रही हैं। भावना के सम्मुख कर्तव्य को प्राथमिकता देने का ऐसा अप्रतिम और मर्यादित आचरण शायद ही उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में कभी मिल सके। यह तो एक “राजर्षि” द्वारा ही संभव है।
सच में योगी आदित्यनाथ ने आज, समय के शिलापट पर “न भूतो न भविष्यति” सदृश लकीर खींच कर ‘राजधर्म और राजनीति’ में त्याग और मर्यादा के नए अध्याय जोड़ दिए हैं।